– शालिन मारीया लॉरेंस (अमेरीका)
मार्टिन लूथर किंग, मैल्कम एक्स, इमैनुअल सेकरन जैसे नेता और दाभोलकर, गौरी लंकेश जैसे तर्कवादी इसलिए नहीं मारे गए क्योंकि वे हिंसक थे, बल्की इसलिए क्योंकि वे बहुत प्रभावशाली थे और उत्पीड़न की व्यवस्था पर सवाल उठाते थे। दलित पंचायत नेता मेलवू मुरुगेसन की हत्या इसलिए की गई क्योंकि उन्होंने लोकतांत्रिक तरीके से चुनाव लड़ा था। वंजियुर कंधन और रेटीयूर पांडीयन की हत्या इसलिए की गई क्योंकि उन्होंने ‘पराई संगीत‘ के वंशानुगत काम का विरोध किया था। उनमें से कोई भी हिंसक नहीं था। उन्होंने सिर्फ उत्पीड़न का विरोध किया और विरोध करने के लिए मारे गए। भारत में दलितों को विरोध करने और खुद का बचाव करने के लिए मारा जाता है।

नांगुनेरी का छात्र राजनीतिक नहीं था, वह अच्छी तरह से पढ़ाई कर रहा था और इसलिए जाति के अपराधियों ने उसके घर पर हमला किया। पुधुकोट्टई के वेंगाइवयाल लोग ज्यादातर डीएमके समर्थक थे, जो बहुत अहिंसक और गैर-विद्रोही थे। लेकिन उनके पीने का पानी मल से दुषित किया गया था। वे बस ‘जीवित‘ रहे और उनके साथ ऐसा किया गया। तमिलनाडु में युवा दलित पुरुषों और महिलाओं को इसलिए नहीं मारा जा रहा है क्योंकि वे राजनीतिक या हिंसक थे, बल्की उन्हें सिर्फ ‘प्यार‘ करने के लिए मारा जा रहा है।चाहे आर्मस्ट्रांग जैसे लोग हों या दलित युवा, उन्हें उनके होने के लिए मारा जा रहा है, न कि इसलिए कि वे कहीं ‘हिंसक‘ थे। वे सभी अहिंसक थे, लेकिन अपनी दलित पहचान के कारण मारे गए या इसलिए क्योंकि वे अलग-अलग तरीकों से जातिव्यवस्था का विरोध करने की कोशिश कर रहे थे।
इसलिए यह जरूरी है @thirumaofficial सर दलितों को गुमराह करना बंद करें और उन पर होने वाले अत्याचार के लिए उन्हें दोषी ठहराना बंद करें। उन्हें दलितों को यह सिखाना बंद कर देना चाहिए कि कैसे जीवित रहना है, क्योंकि वे सबसे अच्छे व्यवहारवाले समूह हैं और वे सिर्फ एक अन्यायपूर्ण समाज में सम्मान और मुक्ती का जीवन जीने की कोशिश कर रहे हैं। इसके बजाय उन्हें अपने गठबंधन के ओबीसी सहयोगियो के पास जाना चाहिए और उन्हें बताना चाहिए कि, कैसे कम जातिवादी और दमनकारी होना चाहिए। जातिवादी मंत्रीयों और नेताओं को सिखाना चाहिए कि कैसे जाति समूह की बैठकों में शामिल नहीं होना चाहिए। उन्हें सामाजिक न्याय सिखाना चाहिए। उन्हें बताएं कि दलितों के प्रति हिंसक कैसे न हों। या फिर वे तमिलनाडु भर में घूमकर अत्याचारी ओबीसी के बीच जाति-विरोधी अभियान चला सकते हैं। उन्हें मानवीय होने और सामान्य ज्ञान के साथ व्यवहार करने का सबक चाहिए। यहां दलित पीडीत अपने कामों से नहीं मरे, बल्की वे अत्याचारी जातति की हिंसक प्रकृति के कारण मरे। वे राज्य की उदासीनता और राज्य की लापरवाही के कारण मरे। वे द्रविड़ पाटीर्यों की जातिगत वोट बैंक की राजनीति के कारण मरे, जो जातिगत पारिस्थिती की तंत्र को सक्षम बनाती है जो दलित विरोधी है। इसलिए अन्नान तिरुमा को राज्य/डीएमके से राज्य में जातिगत हिंसा और अराजकता की स्थिती की जिम्मेदारी लेने की मांग करनी चाहिए। यही प्राथमिकता है। भावना बुद्धी है और दलितों को अपने उत्पीड़न की स्थिती पर गुस्सा करने का पूरा अधिकार है। अगर मेरा दावा मेरे उत्पीड़क की समस्या है, तो मुझे वास्तव में खेद है कि सर, यह मेरा काम नहीं है। दलित यहां केवल बात कर रहे हैं और विरोध कर रहे हैं। अगर हम इसे भी बंद कर दें, तो हमारे पास क्या बचेगा? क्या हमें खुद को गड्डा खोदकर दफना देना चाहिए ताकि हम सुरक्षित रहें या मौजूदा सरकार और जाति उत्पीड़कों के लिए परेशानी का सबब न बनें?